आदित्य हृदय स्तोत्र: सूर्य देव की आराधना का चमत्कारी मंत्र
आदित्य हृदय स्तोत्र एक दिव्य संस्कृत स्तोत्र है जिसे महर्षि अगस्त्य ने भगवान राम को रावण-वध से पहले सुनाया था। यह सूर्य देव की स्तुति है जो शत्रुनाश, विजय और मानसिक बल प्रदान करता है। जानें पूरा पाठ, अर्थ और लाभ।

आदित्य हृदय स्तोत्र एक अत्यंत शक्तिशाली संस्कृत स्तोत्र है, जिसकी रचना महर्षि अगस्त्य द्वारा की गई थी। यह स्तोत्र रामायण के युद्धकाण्ड में आता है, जब भगवान राम रावण से युद्ध करने जा रहे होते हैं, तब महर्षि अगस्त्य भगवान राम को यह स्तोत्र सुनाते हैं ताकि उनका आत्मबल बढ़े और वे विजय प्राप्त करें।
यह स्तोत्र सूर्य भगवान की स्तुति में है और इसका पाठ करने से आत्मबल, आत्मविश्वास, मानसिक शांति, और विजय प्राप्त होती है।
यह रहा आदित्य हृदय स्तोत्र का लयबद्ध (छंद में ढाला गया) पाठ, जिससे इसका जप या पाठ करते समय संगीतात्मकता और भावना बनी रहती है। यह पाठ भक्तिपूर्वक, शांत मन से, उच्चारण शुद्ध रखते हुए पढ़ा या गाया जाता है।
॥ आदित्य हृदय स्तोत्रम् ॥
ततो युद्धपरिश्रान्तं, समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा, युद्धाय समुपस्थितम्॥
दैवतैश्च समागम्य, द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपगम्याब्रवीद्रामं, अगस्त्यो भगवान् ऋषिः॥
राम राम महाबाहो, शृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन्वत्स, समरे विजयिष्यसि॥
आदित्यं पूर्णगुणवं, तेजस्वं च धनञ्जयम्।
नमस्य ब्रह्मणं देवं, सूर्यं वरदं प्रभुम्॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं, सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनं, आयुःकामार्थसिद्धिदम्॥
नमः सूर्याय शान्ताय, सर्वरोग निवारिणे।
आयुरारोग्यमैश्वर्यं, देहि मे जगतां पते॥
मुख्य स्तोत्र:
आदित्य हृदयं पुण्यं, सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपेन्नित्यं, अक्षयं परमं शिवम्॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं, सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनं, आयुःकामार्थसिद्धिदम्॥
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं, देवासुरनमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं, भास्करं भुवनेश्वरम्॥
सर्वदेवात्मको ह्येष, तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणांल्लोकान्, पाति गभस्तिभिः॥
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च, शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो, यमः सोमो ह्यपां पतिः॥
पितरो वसवः साध्या, ह्यश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुरवनिः प्रजाप्राणा, ऋतु: कर्ता प्रभाकरः॥
आदित्यः सविता सूर्यः, खगः पूषा गभस्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुः, हिरण्यरेता दिवाकरः॥
हरिदश्वः सहस्रार्चिः, सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोनमथो हंसः, शुचिः शूरो निशाकरः॥
ब्रह्मा विश्वसृगर्जन्यः, महातापा रविः प्रभुः।
ऋग्यजुःसामवेदनां, धाता कर्ता रविर्दिवः॥
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु, कण्ठे संकटेषु च।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव॥
पूजयस्वैनमेकाग्रो, देवदेवं जगत्पतिम्।
एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा, युद्धेषु विजयिष्यसि॥
अस्मिन्क्षणे महाबाहो, रावणं त्वं वधिष्यसि।
एवमुक्त्वा तदाऽगस्त्यो, जगाम च यथागतम्॥
राम का ध्यान और विजय संकल्प:
एतच्छ्रुत्वा महातेजा, नष्टशोकोऽभवत् तदा।
धारयामास सुप्रीतो, राघवः प्रयतः स्तितः॥
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु, परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा, धनुरादाय वीर्यवान्॥
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा, युद्धाय समुपागमत्।
सर्वयत्नेन महता, वधे तस्य धृतोऽभवत्॥
अधर्यद्युध्यते रामः, स रावणेन रञ्जितः।
**इत्युक्त्वा मुदितो युद्धं, समग्रं प्रतिपेदिवान्॥
॥ इति श्रीरामचरितमानसे युद्धकाण्डे अगस्त्यकृतं आदित्यहृदयस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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